जब तक किसी स्त्री को उसका प्रेम न मिल जाए,
तब तक वह पत्थर ही होती है।
तब तक उसके भीतर सब शिलाखंड हो गया होता है।
और उसके पास हृदय पथरीला हो गया होता है।
जब तक उसे उसका प्रेमी न मिल जाए,
तब तब उसे उसके प्रेम का स्पर्श, जब तक उसे उसके प्रेम की छाया और
जब तक उसे प्रेम की ऊष्मा न मिल जाए, तब तक उसके भीतर कुछ पत्थर की तरह ही पड़ा रह जाता है। वह अनंतकाल तक पत्थर ही रहेगा।
इसे एक तरह से और समझ लेना चाहिए।
स्त्री जो है, "पैसिविटी' है।
स्त्री जो है, वह ग्राहक अस्तित्व है, "रिसेप्टिव एक्जिसटेंस' है।
"एग्रेसिव' नहीं है, आक्रामक नहीं है, ग्राहक है।
स्त्री के व्यक्तित्व में गर्भ ही नहीं है,
उसका चित्त भी गर्भ की भांति है।
इसलिए अंग्रेजी का शब्द "वूमन' तो बहुत मजेदार है।
उसका मतलब है, "मैन विद ए वूंब'। स्त्री जो है, वह गर्भसहित एक पुरुष है।
स्त्री का समस्त अस्तित्व ग्राहक है, "रिसेप्टिव' है।
आक्रामक नहीं है।
पुरुष का सारा व्यक्तित्व आक्रामक है, ग्राहक बिलकुल नहीं है।
और यह दोनों "कांप्लिमेंटरी' हैं,
और स्त्री और पुरुष का सब कुछ "कांप्लिमेंटरी' है।
जो पुरुष में नहीं है वह स्त्री में है, जो स्त्री में नहीं है वह पुरुष में है।
इसलिए वे दोनों मिलकर पूरे हो पाते हैं।
स्त्री की जो ग्राहकता है, वह प्रतीक्षा बन जाएगी और पुरुष का जो आक्रमण है, वह खोज बनती है। अहिल्या जो शिलाखंड की तरह प्रतीक्षा करेगी, राम नहीं प्रतीक्षा करेंगे। राम अनेक पथों पर खोजेंगे। यह बड़े मजे की बात है कि शायद ही किसी स्त्री ने कभी प्रेम-निवेदन किया हो। प्रेम-निवेदन लिया है, किया नहीं है। शायद ही किसी स्त्री ने अपनी तरफ से प्रेम में "इनीशिएटिव' लिया हो, अपनी तरफ से पहल की हो। ऐसा नहीं है कि स्त्री पहल नहीं करना चाहती, ऐसा भी नहीं है कि पहल उसके भीतर पैदा नहीं होती, लेकिन उसकी पहल प्रतीक्षा ही बनती है। उसकी पहल मार्ग ही देखती है, राह देखती है और अनंत जन्मों तक देख सकती है।
असल में जब भी स्त्री आक्रमण करती है, तभी उसके भीतर से कुछ स्त्रैण खो जाता है, और तभी वह कम आकर्षक हो जाती है। उसकी अनंत प्रतीक्षा में ही उसका अर्थ और उसका व्यक्तित्व, उसकी आत्मा है। अनंत काल तक प्रतीक्षा चल सकती है लेकिन स्त्री आक्रमण नहीं कर सकती। वह जाकर किसी से कह नहीं सकती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं।
वह जिसे प्रेम करती है, उससे भी नहीं कह सकती है। वह यही प्रतीक्षा करेगी कि वह जो उसे प्रेम करता है, कभी कहे, और कहने पर भी उसका हां एकदम सीधा नहीं आ जाता। उसका हां भी न की शकल लेकर ही आता है। उसका सारा "गेस्चर' कहेगा, उसका सारा व्यक्तित्व कहेगा, हां। लेकिन उसकी वाणी कहेगी, ना। क्योंकि अगर वह जल्दी हां कहे तो उसमें भी आक्रमण थोड़ा-सा हो जाता है। वह ना ही कहती चली जाएगी। पुरुष ही पहल करेगा।
कृष्ण के लिए भी कोई प्रतीक्षारत हो सकता है। और, कृष्ण के बिना शायद कोई स्त्री उस हर्ष को, उस प्रफुल्लता को, उस खिल जाने को उपलब्ध ही न हो सके।
तो इस देश के नियमों में एक बहुत अदभुत नियम था, वह समझ लेने जैसा है। वह नियम यह था कि स्त्री साधारणतः, सामान्यतया न आक्रमण करती, न निवेदन करती, न प्रार्थना करती। लेकिन, यदि कभी स्त्री प्रार्थना करे तो पुरुष का इनकार अनैतिक है क्योंकि यह बहुत "रेयर' मामला है।
एक स्त्री तो निवेदन करती नहीं, लेकिन यदि कभी स्त्री निवेदन करे तो पुरुष का इनकार अनैतिक है। और अगर पुरुष इनकार करे, तो उसने अपने पुरुषत्व से इनकार कर लिया। यह नियम इसलिए बनाया जा सका कि ऐसे यह सामान्य घटने वाला नियम नहीं है, ऐसा होता नहीं है। लेकिन कभी ऐसे क्षण आते हैं। अर्जुन के जीवन में एक उल्लेख है और उल्लेख मैं आपको याद दिलाना चाहूं..
ओशो .....कृष्ण स्म्रति