Sai SatCharitra

Thursday 10 August 2017

एक कहानी : ओशो की ज़ुबानी

रामकृष्ण बहुत दिन तक साकार उपासना में थे; सगुण साकार की उपासना में लीन थे। काली के भक्त थे। मां की उन्होंने पूजा-अर्चना की थी। और मां की साकार प्रतिमा को भीतर अनुभव कर लिया था। मनुष्य के मन की इतनी सामर्थ्य है कि वह जिस पर भी अपने ध्यान को पूरा लगा दे, उसकी जीवंत प्रतिमा भीतर उत्पन्न हो जाती है। लेकिन फिर भी रामकृष्ण को तृप्ति नहीं थी। क्योंकि मन से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। मन के ऊपर ही संतृप्ति का लोक है। तो बहुत बेचैन थे। अब बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे। जहां तक साकार प्रतिमा ले जा सकती थी, पहुंच गए थे। लेकिन कोई तृप्ति न थी, तो तलाश करते थे कि कोई मिल जाए, जो निराकार में धक्का दे दे।

तो एक संन्यासी गुजरता था। गुजरता था कहना शायद ठीक नहीं है, रामकृष्ण की पुकार के कारण निकला वहां से। इस जगत में जब आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेते हैं, जो आपको किसी विधि के जीवन में प्रवेश करा दे, तो आप यह मत सोचना कि आपने उसे खोजा। आप न खोज पाएंगे। वही आपको खोजता है।

तोतापुरी निकले। तोतापुरी दो दिन से एहसास कर रहे थे कि किसी को मेरी बहुत जरूरत है। दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास से निकलते थे, रुक गए। किसी से पूछा कि मंदिर के भीतर कौन है? तो उन्होंने कहा कि रामकृष्ण मंदिर के भीतर साधना करते हैं। तोतापुरी भीतर गए, देखा कि रामकृष्ण को उनकी जरूरत है; कोई निराकार की यात्रा पर धक्का दे दे।

अदृश्य का जगत इतना ही बड़ा है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह बहुत कम है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह बहुत बड़ा है। न तो हम आकस्मिक किसी से मिलते हैं, न मिल सकते हैं। आकस्मिक हम किसी को सुन भी नहीं सकते। आकस्मिक किसी का शब्द भी हमारे कान में नहीं पड़ सकता। बहुत कार्य-कारणों का जाल है।

तोतापुरी ने जाकर रामकृष्ण को हिलाया। आंख खोली रामकृष्ण ने। रामकृष्ण को लगा, आ गया वह आदमी। उन्होंने नमस्कार किया और कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। दो दिन से चिल्ला रहा हूं कि भेजो किसी को जो मुझे आकार से मुक्त कर दे। आ गए आप! तोतापुरी ने कहा, आ गया मैं। लेकिन कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि तुमने इतनी मेहनत से जो साकार निर्मित किया है, उसे तोड़ना भी पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, मेरी काली को बचने दो। मेरी प्रतिमा को बचने दो, और मुझे निराकार में जाने दो। तोतापुरी ने कहा, तो मैं लौट जाऊं। यह दोनों बात एक साथ न हो सकेगी। तुम्हें इस प्रतिमा को भीतर से तोड़ना पड़ेगा, जैसे तुमने बनाया। रामकृष्ण ने कहा, मैं तोड़ ही नहीं सकता। और तोडूंगा कैसे! भीतर कोई औजार भी तो नहीं है।

तोतापुरी ने कहा, आंख बंद करो और तोड़ने की कोशिश करो। रामकृष्ण आंख बंद करते। आनंदमग्न हो जाते। नाचने लगते। तोतापुरी रोकते और कहते, मैंने इसलिए आंख बंद करने को नहीं कहा। रामकृष्ण कहते, लेकिन जब प्रतिमा दिखाई पड़ती है, तोड़ने की बात कहां, मैं बचता ही नहीं। आनंदमग्न हो जाता हूं। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस आनंद में तृप्त हो जाओ। तृप्त भी नहीं हो पाता, किसी और महाआनंद की तलाश है। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस प्रतिमा को तोड़ो। रामकृष्ण कहने लगे, कैसे तोडूं? न कोई हथौड़ी, न कोई छेनी, कुछ भी तो नहीं है! तोतापुरी ने जो कहा, वह मैं आपसे कहता हूं।

उसने कहा, बनाई कैसे थी? छेनी थी भीतर? किस छेनी से बनाई थी प्रतिमा? उसी छेनी से तोड़ दो। रामकृष्ण ने कहा कि किस छेनी से बनाई थी! मन के ही भाव से बनाई थी। तो तोतापुरी ने कहा, एक काम करो। आंख बंद करो, और मैं एक कांच का टुकड़ा उठाकर लाता हूं बाहर से, और मैं तुम्हारे माथे पर कांच के टुकड़े से काटूंगा, और जब तुम्हें भीतर मालूम पड़े कि लहूलुहान तुम्हारा माथा हो गया तब हिम्मत करके, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना प्रतिमा के। रामकृष्ण ने कहा, तलवार!

तोतापुरी ने कहा, जब प्रतिमा तक तुम अपने मन से बना सके, तो तलवार न बना सकोगे? बना लेना। रामकृष्ण बड़े रोते हुए, क्षमा मांगते हुए कि बड़ी मुश्किल की बात है, भीतर गए। फिर तोतापुरी ने माथे पर कांच से काट दिया। काटते वक्त उन्होंने हिम्मत की, तलवार उठाई, प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिर गई। रामकृष्ण छः दिन के लिए गहन समाधि में खो गए। छः दिन के बाद जब वापस लौटे, तो उन्होंने कहा, अंतिम बाधा गिर गई–दि लास्ट बैरियर हैज फालेन अवे। आखिरी! वह प्रतिमा भी आखिरी बाधा बन गई थी।

जो हम निर्मित करते हैं, उसे मिटाना भी पड़ता है फिर। हमने राग की प्रतिमाएं निर्मित की हैं, तो हमें विराग की तलवारें उठानी पड़ेंगी। नहीं तो कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। अगर राग निर्माण न किया हो, तो विराग की तलवार उठाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिसने राग निर्माण नहीं किया है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने कहां जाता है! पूछने कहां जाता है! वह जाता नहीं। और जिसने राग निर्माण किया है, वह सुनने-पूछने जाता है। वह उससे कह रहे हैं कि कुछ न करना। कुछ करने की जरूरत नहीं है। अभ्यास व्यर्थ है।

तो वह जो रागी है, अपने अभ्यास को तो जारी रखता है राग के। बड़ा मजा यह है हमारे मन का। अगर वह यह भी मान ले कि अभ्यास व्यर्थ है, तो राग का अभ्यास भी बंद कर दे। वह तो बंद नहीं करता। उसको जारी रखता है। सिर्फ वैराग्य का अभ्यास बंद कर देता है। बंद कर देता है, कहना ठीक नहीं; शुरू नहीं करता। बंद कहां! उसने शुरू ही नहीं किया है।