जीवन की समस्त शृंखला बिलकुल अकारण है। फिर भी है। जो अकारण है वह भी है। इसके होने के साथ जो प्रेम का संबंध है, उसका नाम श्रद्धा है। जो अकारण है, उसके साथ प्रेम का संबंध श्रद्धा है।
पहला सूत्र श्रद्धा ही का है। धर्म का प्रारंभ ही नहीं होता श्रद्धा
के बिना और जहां तक श्रद्धा नहीं होती, वहां तक और सब कुछ हो सकता है, धर्म नहीं होता। इसलिए धर्म इस जगत में सबसे बेबूझ घटना है। और धार्मिक होना इस जगत की आंखों में पागल होने के बराबर है। धार्मिक होना इस जगत की आंखों में पागल होने के बराबर है। इसलिए पागल होने से कम की तैयारी हो, तो कोई धार्मिक नहीं हो पाता। श्रद्धा बिलकुल पागलपन है। श्रद्धा का अर्थ ही यह है, हम एक छलांग लेते हैं। जहां तर्क चुक जाते हैं, हम वहां भी एक छलांग लेते हैं। जहां रास्ता समाप्त हो जाता है, वहां भी हम एक छलांग लेते हैं।
इसे थोड़ा समझें।
तर्क क्रमबद्ध होता है। श्रद्धा छलांग है। तर्क क्रमबद्ध होता है। तर्क पिछली घटना से जुड़ा होता है। तर्क सदा ही पीछे जुड़ा होता है। तर्क कहता है कि कोई चीज क्यों है? कारण खोज लेता है। कारण मिल जाता है। श्रद्धा कहती है, कोई चीज है और क्यों के लिए कोई उत्तर नहीं, बस है। इसलिए अगर बहुत तार्किक व्यक्ति हो तो सामान्य प्रेम में भी नहीं उतर पाता है। क्योंकि प्रेम के लिए कोई कारण नहीं मिलता। और प्रेम के लिए जितने कारण लोग खोजते हैं, वह सब पीछे खोजे गये होते हैं। प्रेम पहले घट जाता है, फिर आदमी पीछे कारण खोज लेता है।
किसी को देखा है और भीतर कोई तरंग उठ आती है, प्रेम घट जाता है। लेकिन आदमी बुद्धिमान है। तो बिना बुद्धि के तो वह प्रेम भी नहीं कर सकता। तो फिर वह कारण खोजता है; कि इस व्यक्तित्व में यह कारण है—चेहरा सुंदर है, कि आचरण ऐसा है... फिर वह कारण खोजता है। लेकिन कारण खानापूरी है, पीछे है। प्रेम पहले घट जाता है, कारण पीछे चले आते हैं। फिर हम कारणों को पहले रख लते हैं और प्रेम को पीछे मानते हैं। लेकिन प्रेम की घटना ऐसे घटती है जैसे गाड़ी पहले आ जाए और बैल पीछे। फिर हम व्यवस्था जमा लेते हैं, बैल को आगे कर लेते हैं, गाड़ी को पीछे कर लेते हैं। फिर सब ठीक चल पड़ता है।
लेकिन इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, अकारण घटता है। लेकिन जिन्हें प्रेम ही कभी न हुआ हो, उन्हें श्रद्धा बहुत मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि प्रेम जैसी सामान्य घटना भी जिनके जीवन में न घटी हो, श्रद्धा जैसी असामान्य घटना बिलकुल न घट सकेगी। प्रेम का अर्थ है दो व्यक्तियों के बीच असंभव घट जाना। प्रेम का अर्थ है, दो व्यक्तियों के बीच असंभव की छलांग हो जाना। और श्रद्धा का अर्थ है, व्यक्ति और समष्टि के बीच असंभव का घट जाना। मेरे और समष्टि के बीच जब प्रेम घटता है तो उसका नाम श्रद्धा है; और मेरे और किसी के बीच जब घटता है—वही घटना—तो उसका नाम प्रेम है।
इसलिए प्रेम की सीमा है, श्रद्धा की कोई सीमा नहीं। इसलिए प्रेम चुक जाता है, श्रद्धा नहीं चुकती। इसलिए प्रेम होता है, खिलता है, मुरझाता है, लेकिन श्रद्धा नहीं मुरझाती। प्रेम क्षणिक ही है, वे क्षण कितने ही लंबे हो जाएं लेकिन श्रद्धा शाश्वत है। इसलिए जो प्रेम में शाश्वत को खोजता है, वह गलत जगह खोजता है। उसे श्रद्धा में ही शाश्वत को खोजना चाहिए।
श्रद्धा., भक्ति दूसरा सूत्र कहा है। श्रद्धा तो अंतर्घटना है, भक्ति उसकी अभिव्यक्ति है। श्रद्धा तो भीतर घटती है। श्रद्धा तो अंतs— अनुभव है। एक व्यक्ति को श्रद्धा घट गयी, उसे अनहोने, अपरिचित, रहस्यपूर्ण अस्तित्व के प्रति वह भाव आ गया जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसे पत्थर और पौधे में और तारे में प्रेमी दिखायी पड़ने लगा। उस परम मित्र के दर्शन होने लगे, या उस परम प्रेयसी का अनुभव होने लगा जो सब जगह छिपी है, यह तो श्रद्धा है, भक्ति इसकी अभिव्यक्ति है।
वैसा व्यक्ति अब.... अब जहां भी उठेगा, चलेगा, बैठेगा, जो भी करेगा, उस सब में उसकी श्रद्धा प्रगट होगी। सब में। वह जो प्रगट होना है, वह भक्ति है। वह अगर एक वृक्ष के पास भी जाएगा तो उसे नमस्कार करके ही बैठेगा। पागलपन है! पागलपन तो घट गया। अगर श्रद्धा की घटना घट गयी, तो वह वृक्ष को भी नमस्कार करके ही बैठेगा। अगर वृक्ष ने उसे छाया दी है, तो धन्यवाद देकर ही उठेगा।
अभी एक बहुत—बहुत हैरानी की घटना पश्चिम के विज्ञान में घट रही है। एक रशियन वैज्ञानिक और एक अमरीकन वैज्ञानिक, दोनों ने अलग—अलग मार्गों से एक बहुत हैरानी का सूत्र खोजा है। वह मैं आपसे कहना चाहूंगा। यह दोनों वैज्ञानिक, अलग—अलग, अपरिचित एक—दूसरे से, एक प्रयोग कर रहे थे कि आदमी के भीतर जो भी भावदशा होती है, क्या उस भावदशा को नापा जा सकता है? थोड़े प्रयोग सफल हुए हैं। अगर एक आदमी अचानक भय से भर जाए, तो उसके हृदय की धड़कन बदल जाती है। उसकी सांस की गति बदल जाती है। उसकी नाड़ी की गति बदल जाती है। उसकी पसीने की पंथियां अलग तरह से काम करने लगती हैं। उसके शरीर का रस—स्राव बदल जाता है। उसके रासायनिक परिवर्तन शुरू हो जाते हैं। और वैज्ञानिक अब जानते हैं कि शरीर के भीतर बहती हुई जो विद्युत है, जिसे हम प्राण कहते हैं, उसकी तरंगों में भी परिवर्तन तत्काल हो जाता है। यह सब नापा जा सकता है। अब वैसे यंत्र उपलब्ध हैं, जिनसे नापा जा सकता है।
आप बताएं मत, आप बैठे हैं और अचानक आप की छाती पर एक बंदूक लाकर लगा दी गयी है, तो आपके शरीर से यंत्र तारों से जुड़ा है, वह यंत्र बता देगा कि आप कितने भय से भर गये हैं। लेकिन तभी जो बंदूक लाया है वह हंसने लगा और उसने कहा कि मैंने मजाक किया, तो यंत्र फौरन बता देगा कि भय विलीन होता जा रहा है, शिथिल होता जा रहा है। विद्युत और रासायनिक प्रक्रियाएं अपने पुराने ढांचे पर वापिस लौटती हैं। अगर आप का प्रेमी कमरे के भीतर आ गया है, तो आपके भीतर जो परिवर्तन होते हैं, वह यंत्र बता देता है।
इन वैज्ञानिकों को यह खयाल आया कि आदमी में तो ठीक है, लेकिन क्या पशुओं में भी नापा जा सकता है?
तब तो हम पशुओं में भी प्रवेश कर सकते है। अभी तक पशुओं से हमारी कोई मुलाकात नहीं हो पाती। उनके भीतर क्या होता है, हमे पता नहीं। लेकिन जब आदमी नापा जा सका, तो फिर पशु भी नापे गये और पाया गया कि पशु तो और भी शुनिश्रितता से नापे जा सकते हैं। क्योंकि उनके परिवर्तन और भी स्पष्ट होते हैं। अचानक इन वैज्ञानिकों को खयाल आया, क्या पौधों को भी नापा जा सकता है? क्या पौधों में भी कोई परिवर्तन होते होगे? भरोसा नही था। सिर्फ जानने के लिए प्रयोग किये और हैरान हो गये।
और हैरान हो गये, रखा हुआ है एक पौधा—गुलाब का पौधा रखा हुआ है, उसकी शाखाओं से तार बंधे हुए हैं बिजली के जो यंत्र को खबर देते हैं कि पौधे में क्या हो रहा है; और वह वैज्ञानिक काटने की मशीन लेकर पौधे के पास आया, सोचता था कि—काटे, तभी उसकी दृष्टि गयी पास में रखे हुए यंत्र पर, यंत्र की सुई तेजी से घूम रही थी—भय की तरफ। तो वह घबडा गया। काटता, तब उसने सोचा था कि पौधे में कुछ होगा। लेकिन पौधे के पास काटने का इतंजाम लाया था सिर्फ अभी, लेकिन काटने का भाव था भीतर। क्या पौधे को भाव की खबर लगती है? और हैरानी की बात है कि पौधे ने जितने तेजी से सूचनाएं दीं, वह पशु से भी ज्यादा स्पष्ट। तब तो इस वैज्ञानिक ने सैकड़ों प्रयोग किये, क्योंकि भरोसा उसे अपनी आंख पर नहीं आया कि मेरा भाव, बिना कुछ किये और पौधे को प्रभावित करता होगा, और पौधे के प्राणों में रूपातंरण हो जाता है।
तब उसने एक और अनूठा प्रयोग किया और वह यह कि पौधा यह रखा हुआ है, इस पौधे को नहीं काटना है उसे, काटने के लिए दूसरा पौधा रखा हुआ है, और इस पौधे के यंत्र से संबंध जुडे हैं, लेकिन दूसरे पौधे के पास काटने के लिए गया, तो भी इस पौधे ने पीड़ा की खबर दी—दूसरे पौधे को काटने गया तो भी इस पौधे ने खबर दी कि वह भयभीत हो गया है और दुखी और पीडित हो गया है। और उसके भीतर रासायनिक—परिवर्तन हुए। ये तो विज्ञान के यंत्र से पकड़ी हुई बातें हैं। श्रद्धा के तंत्र से भी यह अनुभव पकड़े गये हैं। श्रद्धावान ने भी एक—एक पत्ते में, एक—एक पत्थर में उस परम प्राण को अनुभव किया है। भक्ति उसकी अभिव्यक्ति है। ऐसा व्यवहार इस जगत के साथ, जैसा यह सारा जगत मेरा प्रेमी है। इस अस्तित्व के साथ ऐसा व्यवहार, जैसे इससे एक अंत मैत्री है। तो एक आदमी पौधे के पास पूजा का थाल लिये हुए पूजा कर रहा है, तो हमे पागल पन लगता है। लगेगा, क्योंकि हमें उस तंत्र का कोई पता नहीं है। और हो सकता है उसे भी पता न हो, वह भी सिर्फ परंपरागत किये जा रहा हो। तब वह बिलकुल ना समझी है। एक आदमी नदी को हाथ जोड़ कर प्रणाम कर रहा है, तो बिलकुल पागलपन है। लेकिन अगर परंपरागत ही कर रहा हो तो आप ठीक हैं, और अगर हार्दिक कर रहा हो, तो आप बिलकुल गलत हैं। एक नदी से भी यह संबंध हो सकता है। एक पौधे से भी यह संबंध हो सकता है। एक्पत्थर की मूर्ति से भी यह सबंध हो सकता है। यह संबंध कहीं भी हो सकता है। और एक दफा श्रद्धा का जन्म हो, तो भक्ति अनिवार्य छाया की तरह उसके पीछे चली आती है।
ऋषि ने भक्ति के बाद ध्यान को रखा है। अगर भक्ति हृदय में हो, तो मन को ध्यान में ले जाना इतना सुगम है जिसका कोई हिसाब नहीं। श्रद्धा भीतर हो, तो भक्ति छाया की तरह आ जाती है। श्रद्धा भीतर हो, भक्ति छाया की तरह आती हो, तो ध्यान सुगंध की तरह पीछा करता है। ध्यान में हमे कठिनाई होती है, क्योंकि न श्रद्धा है, न भक्ति है, तो ध्यान हमे सीधा ही करना पड़ता है। सीधा करने में तकलीफ होती है। क्योंकि तब ध्यान में हमें बहुत ताकत लगानी पड़ती है। फिर भी उतने परिणाम नही होते क्योंकि बहुत मौलिक दो आधार नहीं हैं।
जो सारे अस्तित्व के साथ प्रेम से भरा है, और जिसका उठना—बैठना, जिसकी आंख की पलक का हिलना, जिसकी मुद्रा, सब इस जगत के प्रति भक्ति से भरी है, उसे ध्यान में जाने में क्षण— भर की भी देर न लगेगी। उसे ख्याल भर आ जाए कि ध्यान, और ध्यान हो जाए। क्योंकि यहां कोई संघर्ष ही न रहा। कोई तनाव न रहा। तनाव तो वहां है जहां जगत शत्रु है। तनाव तो वहां है जहां अस्तित्व मेरा विरोधी है। तनाव तो वहां है जहां एक लड़ाई चल रही है, जीवन एक.. एक युद्ध है। तनाव नहीं होगा, भक्त ध्यान में ऐसे ही चला जाता है।
इसलिए भक्तों ने तो यहां तक कहा है कि क्या ध्यान, क्या योग! उसका कारण है। भक्तों ने कहा क्या ध्यान, क्या योग, भक्ति काफी है। वह ठीक कहते हैं। वह ठीक इसलिए कहते हैं—इसलिए नहीं कि ध्यान का कोई मतलब नहीं—इसलिए कि ध्यान तो उन्हें सहज हो जाता है। एक मीरा नाचती है और ध्यान में चली जाती है। उसने ध्यान का कोई प्रयोग कभी सीखा नहीं। एक चैतन्य अपने कीर्तन में हैं और ध्यान में चले जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं कि ध्यान!
चैतन्य के साथ बड़ी मजेदार घटना घटी है। चैतन्य ने सुना कि एक बड़ा योगी गांव के पास ठहरा हुआ है और लोग उसके पास जाते हैं, ध्यान सीखते हैं। तो चैतन्य ने कहा, मैं भी जाऊं और ध्यान सीखूं। तो चैतन्य उस योगी के पास ध्यान सीखने गये। हैरान हुए बहुत, क्योंकि जब चैतन्य पहुंचे तो वह योगी चैतन्य के चरणों में सिर रखकर लेट गया। तो चैतन्य ने कहा, यह क्या करते हो? यह क्या करते हो? मैं तो तुमसे ध्यान सीखने आया हूं। मैंने तो सुना कि ध्यान अनेक लोग सीखते हैं, तो मैं भी सीख आऊं। तो उस योगी ने कहा, अगर ध्यान ही सीखना था, तो भक्ति के पहले आना था। ध्यान में तो तुम हो, लेकिन तुम्हें पता भी नहीं। भक्त को पता भी नहीं होता कि वह ध्यान में है। क्योंकि ध्यान उसके लिए 'बाइप्रॉडक्ट' है, पीछे आती है, श्रद्धा और भक्ति का सहज फल होता है। सबसे आखीर में रखा है योग। जिसे ध्यान सध जाता है, उसके पीछे योग चला आता है। हम सब उल्टे चलते हैं। लोग योग से शुरू करते हैं, फिर ध्यान करते हैं। फिर सोचते हैं कोई तरह से खींचतान कर भक्ति लाओ, फिर आखीर में किसी तरह श्रद्धा बन जाए। जिस व्यक्ति का मन ध्यान में चला जाता है, उसका शरीर योग में चला जाता है। योग शरीर की घटना है, ध्यान मन की।
इसे हम ऐसा समझें। श्रद्धा 'कास्मिक ' है, ब्रह्मभाव है। भक्ति आत्मिक है, व्यक्तिभाव है। ध्यान मानसिक है। योग शारीरिक है। हम शरीर से शुरू करते हैं, फिर मन पर जाते हैं, फिर आत्मा पर, फिर ब्रह्म पर। ऋषि ने कहा है, पहले ब्रह्म के प्रति श्रद्धा, फिर आत्मा में भक्ति, फिर मन में ध्यान, फिर शरीर में योग। ऐसा कोई चलेगा तो हर दूसरा चरण सहज होता है। उल्टा कोई चलेगा, तो हर दूसरा चरण और भी कठिन होता है। योग से जो शुरू करेगा, उसे ध्यान और कठिन होगा। इसलिए आमतौर से ऐसा होता है कि योग से शुरू करनेवाले योग पर ही रुक जाते हैं। आसन वगैरह करके निपट जाते हैं, ध्यान तक नहीं पहुंच पाते हैं। ध्यान से शुरू करेगा, तो भक्ति कठिन होगी। इसलिए ध्यान करनेवाले अक्सर ध्यान पर रुक जाते हैं, भक्ति तक नहीं पहुंच पाते हैं। भक्ति से जो शुरू करेगा, अक्सर भक्ति पर रुक जाएगा। उस परम श्रद्धा तक भी नहीं पहुंच पाएगा। यह आंतरिक केंद्र से यात्रा की शुरुआत है— श्रद्धा केंद्र से; दूसरी परिधि भक्ति, फिर तीसरी परिधि ध्यान, फिर चौथी परिधि योग। ध्यान में गया मन, शरीर अपने—आप योग में प्रवेश कर जाता है।
बहुत लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि जब हम ध्यान करते हैं, तो न—मालूम कैसे—कैसे आसन अपने—आप शुरू हो जाते हैं। वे हो जाएगे जब मन, भीतर ध्यान की स्थिति बदलेगी, तो शरीर को तत्काल स्थिति बदलनी पड़ेगी और मन के अनुकूल अपने को सभांलना पड़ेगा।
यह चार सूत्र बहु मूल्य हैं। इनकी शृखंला सर्वाधिक बहुमूल्य है। श्रद्धा से प्रारंभ करें।
(Picture courtesy google)
Oh Sai Baba, we wave lights before you, the bestower of happiness to the Jivas. Give us - Your servants and devotees rest under the dust of your Feet, burning desires. Oh Kind-hearted, Your power is such! meditation on Your name removes our fear of the Sansar. Oh God of Gods, I pray that, let my treasure be the service of Your Feet. Feed Madhav (the composer of this arati) with happiness as the cloud feeds the Chatak bird with pure water, and thus keep up Your Word.
Sai SatCharitra
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