आस्कर वाइल्ड की एक छोटी सी कहानी है। एक आदमी मरा। जिंदगी में लोग जो करना चाहते हैं, सब करके मरा। बड़ा पद, बहुत धन, सुंदर स्त्रियां--जो भी मनुष्य की आकांक्षाएं हैं--सभी को पूरी करके मरा।
परमात्मा के सामने न्यायालय में उपस्थित किया गया। स्वभावतः परमात्मा नाराज था। उसने कहा, बहुत पाप किए तुमने। तुम्हारे पास अपने किए गए पापों के लिए कोई उत्तर है? उस आदमी ने कहा, जो मैं करना चाहता था वह मैंने किया और उत्तरदायी मैं किसी के प्रति नहीं हूं। परमात्मा थोड़ा चौंका। उसने कहा, तुम हिंसा किए, हत्या किए, खून किए? उस आदमी ने कहा, निश्चित ही। तुमने धन के लिए लोगों की जानें लीं? तुमने व्यभिचार किया, बलात्कार किया? उस आदमी ने कहा, निश्चित ही। लेकिन उस आदमी के चेहरे पर शिकन भी न थी। न अपराध का कोई भाव था। न कोई चिंता थी। परमात्मा थोड़ा बेचैन होने लगा। अपराधी बहुत आए थे, यह कुछ नए ही ढंग का आदमी था। परमात्मा ने कहा, जानते हो, तुम्हारा यह बार-बार कहना कि हां, निश्चित ही, मैं तुम्हें नर्क भेज दूंगा! उस आदमी ने कहा, तुम भेज न सकोगे। क्योंकि मैं जहां भी रहा, नर्क में ही रहा। अब तुम मुझे कहां भेजोगे? मैंने नर्क के सिवाय कभी कुछ जाना ही नहीं, अब तुम हमें और कहां भेजोगे जहां नर्क हो सकता है?
अब तो परमात्मा के चेहरे पर पसीना झलक आया। कुछ सूझा न उसे। अब तक के सारे निर्णय, अब तक की लंबी सनातन से चली आती हुई घटनाएं, कोई काम न पड़ीं। कोई फाइल सार्थक न मालूम हुई। उसने कहा--घबड़ाहट में--कि फिर मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा। उस आदमी ने कहा, यह भी न हो सकेगा। परमात्मा ने कहा, तुम आखिर हो कौन? मेरे ऊपर कौन है, जो मुझे रोक सके तुम्हें स्वर्ग भेजने से! उस आदमी ने कहा, मैं हूं। क्योंकि मैं सुख की कल्पना ही नहीं कर सकता और हर सुख को दुख में बदल लेने में मैं इतना निष्णात हो गया हूं। तुम मुझे स्वर्ग न भेज सकोगे। तुम भेजोगे, मैं नर्क बना लूंगा। मैंने सुख का स्वप्न भी नहीं देखा। सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता हूं, तुम मुझे स्वर्ग कैसे भेजोगे?
और कहते हैं, मामला वहीं अटका है। परमात्मा सोच रहा है, इस आदमी को कहां भेजें? नर्क भेज नहीं सकता, क्योंकि नर्क में वह रहा ही है। स्वर्ग भेज नहीं सकता, क्योंकि स्वर्ग भेजने का उपाय नहीं है।
इस कहानी को ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना। यह किसी और आदमी की कहानी नहीं, सभी आदमियों की कहानी है। तुम वहीं भेजे जा सकते हो, जहां तुम जाना चाहते हो। और अगर सुख की तुम्हारे जीवन में स्वप्न की भी क्षमता खो गयी है, तो तुम्हें कोई भी स्वर्ग नहीं दे सकता। स्वर्ग कोई दान नहीं। स्वर्ग किसी के अनुग्रह से न मिलेगा। अर्जित करना होगा।
सुख भी सीखना पड़ता है। सुख का स्वाद भी सीखना पड़ता है। और अगर तुम स्वाद को न जानो, तो सुख पड़ा रहेगा तुम्हारी थाली में, तुम उसे चख न सकोगे, तुम उसे अपना खून-मांस-मज्जा न बना सकोगे, वह तुम्हारी रक्त की धार में न बह सकेगा, वह तुम्हारे जीवन की रसधार न बनेगी। और दुख भी तुम्हारा जीवन का ढंग है। तुम्हारे हाथ में जो पड़ जाता है, तुम दुख में बदल देते हो।
जो देखते हैं दूर और गहरा, उनसे अगर पूछो, जागे हुओं से पूछो, तो वे कहेंगे, सुख और दुख होते ही नहीं। तुम्हीं हो। वही घटना सुख बन जाती है किसी के हाथ में, वही घटना दुख बन जाती है। कोई उसी घटना को दुर्भाग्य बना लेता है, कोई उसी को सौभाग्य बना लेता है। सारी बात तुम पर निर्भर है। तुम आत्यंतिक निर्णायक हो। परमात्मा भी तुम्हें स्वर्ग नहीं भेज सकता, नर्क नहीं भेज सकता। तुम जहां होना चाहते हो, वहीं हो और वहीं रहोगे। तुम्हारी स्वतंत्रता अंतिम है। तुम अपने मालिक हो।
( ओशो )