Thursday 31 August 2017

श्रद्धा ~ओशो

जीवन की समस्त शृंखला बिलकुल अकारण है। फिर भी है। जो अकारण है वह भी है। इसके होने के साथ जो प्रेम का संबंध है, उसका नाम श्रद्धा है। जो अकारण है, उसके साथ प्रेम का संबंध श्रद्धा है।
पहला सूत्र श्रद्धा ही का है। धर्म का प्रारंभ ही नहीं होता श्रद्धा
के बिना और जहां तक श्रद्धा नहीं होती, वहां तक और सब कुछ हो सकता है, धर्म नहीं होता। इसलिए धर्म इस जगत में सबसे बेबूझ घटना है। और धार्मिक होना इस जगत की आंखों में पागल होने के बराबर है। धार्मिक होना इस जगत की आंखों में पागल होने के बराबर है। इसलिए पागल होने से कम की तैयारी हो, तो कोई धार्मिक नहीं हो पाता। श्रद्धा बिलकुल पागलपन है। श्रद्धा का अर्थ ही यह है, हम एक छलांग लेते हैं। जहां तर्क चुक जाते हैं, हम वहां भी एक छलांग लेते हैं। जहां रास्ता समाप्त हो जाता है, वहां भी हम एक छलांग लेते हैं।
इसे थोड़ा समझें।
तर्क क्रमबद्ध होता है। श्रद्धा छलांग है। तर्क क्रमबद्ध होता है। तर्क पिछली घटना से जुड़ा होता है। तर्क सदा ही पीछे जुड़ा होता है। तर्क कहता है कि कोई चीज क्यों है? कारण खोज लेता है। कारण मिल जाता है। श्रद्धा कहती है, कोई चीज है और क्यों के लिए कोई उत्तर नहीं, बस है। इसलिए अगर बहुत तार्किक व्यक्ति हो तो सामान्य प्रेम में भी नहीं उतर पाता है। क्योंकि प्रेम के लिए कोई कारण नहीं मिलता। और प्रेम के लिए जितने कारण लोग खोजते हैं, वह सब पीछे खोजे गये होते हैं। प्रेम पहले घट जाता है, फिर आदमी पीछे कारण खोज लेता है।
किसी को देखा है और भीतर कोई तरंग उठ आती है, प्रेम घट जाता है। लेकिन आदमी बुद्धिमान है। तो बिना बुद्धि के तो वह प्रेम भी नहीं कर सकता। तो फिर वह कारण खोजता है; कि इस व्यक्तित्व में यह कारण है—चेहरा सुंदर है, कि आचरण ऐसा है... फिर वह कारण खोजता है। लेकिन कारण खानापूरी है, पीछे है। प्रेम पहले घट जाता है, कारण पीछे चले आते हैं। फिर हम कारणों को पहले रख लते हैं और प्रेम को पीछे मानते हैं। लेकिन प्रेम की घटना ऐसे घटती है जैसे गाड़ी पहले आ जाए और बैल पीछे। फिर हम व्यवस्था जमा लेते हैं, बैल को आगे कर लेते हैं, गाड़ी को पीछे कर लेते हैं। फिर सब ठीक चल पड़ता है।
लेकिन इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, अकारण घटता है। लेकिन जिन्हें प्रेम ही कभी न हुआ हो, उन्हें श्रद्धा बहुत मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि प्रेम जैसी सामान्य घटना भी जिनके जीवन में न घटी हो, श्रद्धा जैसी असामान्य घटना बिलकुल न घट सकेगी। प्रेम का अर्थ है दो व्यक्तियों के बीच असंभव घट जाना। प्रेम का अर्थ है, दो व्यक्तियों के बीच असंभव की छलांग हो जाना। और श्रद्धा का अर्थ है, व्यक्ति और समष्टि के बीच असंभव का घट जाना। मेरे और समष्टि के बीच जब प्रेम घटता है तो उसका नाम श्रद्धा है; और मेरे और किसी के बीच जब घटता है—वही घटना—तो उसका नाम प्रेम है।
इसलिए प्रेम की सीमा है, श्रद्धा की कोई सीमा नहीं। इसलिए प्रेम चुक जाता है, श्रद्धा नहीं चुकती। इसलिए प्रेम होता है, खिलता है, मुरझाता है, लेकिन श्रद्धा नहीं मुरझाती। प्रेम क्षणिक ही है, वे क्षण कितने ही लंबे हो जाएं लेकिन श्रद्धा शाश्वत है। इसलिए जो प्रेम में शाश्वत को खोजता है, वह गलत जगह खोजता है। उसे श्रद्धा में ही शाश्वत को खोजना चाहिए।
श्रद्धा., भक्ति दूसरा सूत्र कहा है। श्रद्धा तो अंतर्घटना है, भक्ति उसकी अभिव्यक्ति है। श्रद्धा तो भीतर घटती है। श्रद्धा तो अंतs— अनुभव है। एक व्यक्ति को श्रद्धा घट गयी, उसे अनहोने, अपरिचित, रहस्यपूर्ण अस्तित्व के प्रति वह भाव आ गया जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसे पत्थर और पौधे में और तारे में प्रेमी दिखायी पड़ने लगा। उस परम मित्र के दर्शन होने लगे, या उस परम प्रेयसी का अनुभव होने लगा जो सब जगह छिपी है, यह तो श्रद्धा है, भक्ति इसकी अभिव्यक्ति है।
वैसा व्यक्ति अब.... अब जहां भी उठेगा, चलेगा, बैठेगा, जो भी करेगा, उस सब में उसकी श्रद्धा प्रगट होगी। सब में। वह जो प्रगट होना है, वह भक्ति है। वह अगर एक वृक्ष के पास भी जाएगा तो उसे नमस्कार करके ही बैठेगा। पागलपन है! पागलपन तो घट गया। अगर श्रद्धा की घटना घट गयी, तो वह वृक्ष को भी नमस्कार करके ही बैठेगा। अगर वृक्ष ने उसे छाया दी है, तो धन्यवाद देकर ही उठेगा।
अभी एक बहुत—बहुत हैरानी की घटना पश्चिम के विज्ञान में घट रही है। एक रशियन वैज्ञानिक और एक अमरीकन वैज्ञानिक, दोनों ने अलग—अलग मार्गों से एक बहुत हैरानी का सूत्र खोजा है। वह मैं आपसे कहना चाहूंगा। यह दोनों वैज्ञानिक, अलग—अलग, अपरिचित एक—दूसरे से, एक प्रयोग कर रहे थे कि आदमी के भीतर जो भी भावदशा होती है, क्या उस भावदशा को नापा जा सकता है? थोड़े प्रयोग सफल हुए हैं। अगर एक आदमी अचानक भय से भर जाए, तो उसके हृदय की धड़कन बदल जाती है। उसकी सांस की गति बदल जाती है। उसकी नाड़ी की गति बदल जाती है। उसकी पसीने की पंथियां अलग तरह से काम करने लगती हैं। उसके शरीर का रस—स्राव बदल जाता है। उसके रासायनिक परिवर्तन शुरू हो जाते हैं। और वैज्ञानिक अब जानते हैं कि शरीर के भीतर बहती हुई जो विद्युत है, जिसे हम प्राण कहते हैं, उसकी तरंगों में भी परिवर्तन तत्काल हो जाता है। यह सब नापा जा सकता है। अब वैसे यंत्र उपलब्ध हैं, जिनसे नापा जा सकता है।
आप बताएं मत, आप बैठे हैं और अचानक आप की छाती पर एक बंदूक लाकर लगा दी गयी है, तो आपके शरीर से यंत्र तारों से जुड़ा है, वह यंत्र बता देगा कि आप कितने भय से भर गये हैं। लेकिन तभी जो बंदूक लाया है वह हंसने लगा और उसने कहा कि मैंने मजाक किया, तो यंत्र फौरन बता देगा कि भय विलीन होता जा रहा है, शिथिल होता जा रहा है। विद्युत और रासायनिक प्रक्रियाएं अपने पुराने ढांचे पर वापिस लौटती हैं। अगर आप का प्रेमी कमरे के भीतर आ गया है, तो आपके भीतर जो परिवर्तन होते हैं, वह यंत्र बता देता है।
इन वैज्ञानिकों को यह खयाल आया कि आदमी में तो ठीक है, लेकिन क्या पशुओं में भी नापा जा सकता है?
तब तो हम पशुओं में भी प्रवेश कर सकते है। अभी तक पशुओं से हमारी कोई मुलाकात नहीं हो पाती। उनके भीतर क्या होता है, हमे पता नहीं। लेकिन जब आदमी नापा जा सका, तो फिर पशु भी नापे गये और पाया गया कि पशु तो और भी शुनिश्रितता से नापे जा सकते हैं। क्योंकि उनके परिवर्तन और भी स्पष्ट होते हैं। अचानक इन वैज्ञानिकों को खयाल आया, क्या पौधों को भी नापा जा सकता है? क्या पौधों में भी कोई परिवर्तन होते होगे? भरोसा नही था। सिर्फ जानने के लिए प्रयोग किये और हैरान हो गये।
और हैरान हो गये, रखा हुआ है एक पौधा—गुलाब का पौधा रखा हुआ है, उसकी शाखाओं से तार बंधे हुए हैं बिजली के जो यंत्र को खबर देते हैं कि पौधे में क्या हो रहा है; और वह वैज्ञानिक काटने की मशीन लेकर पौधे के पास आया, सोचता था कि—काटे, तभी उसकी दृष्टि गयी पास में रखे हुए यंत्र पर, यंत्र की सुई तेजी से घूम रही थी—भय की तरफ। तो वह घबडा गया। काटता, तब उसने सोचा था कि पौधे में कुछ होगा। लेकिन पौधे के पास काटने का इतंजाम लाया था सिर्फ अभी, लेकिन काटने का भाव था भीतर। क्या पौधे को भाव की खबर लगती है? और हैरानी की बात है कि पौधे ने जितने तेजी से सूचनाएं दीं, वह पशु से भी ज्यादा स्पष्ट। तब तो इस वैज्ञानिक ने सैकड़ों प्रयोग किये, क्योंकि भरोसा उसे अपनी आंख पर नहीं आया कि मेरा भाव, बिना कुछ किये और पौधे को प्रभावित करता होगा, और पौधे के प्राणों में रूपातंरण हो जाता है।
तब उसने एक और अनूठा प्रयोग किया और वह यह कि पौधा यह रखा हुआ है, इस पौधे को नहीं काटना है उसे, काटने के लिए दूसरा पौधा रखा हुआ है, और इस पौधे के यंत्र से संबंध जुडे हैं, लेकिन दूसरे पौधे के पास काटने के लिए गया, तो भी इस पौधे ने पीड़ा की खबर दी—दूसरे पौधे को काटने गया तो भी इस पौधे ने खबर दी कि वह भयभीत हो गया है और दुखी और पीडित हो गया है। और उसके भीतर रासायनिक—परिवर्तन हुए। ये तो विज्ञान के यंत्र से पकड़ी हुई बातें हैं। श्रद्धा के तंत्र से भी यह अनुभव पकड़े गये हैं। श्रद्धावान ने भी एक—एक पत्ते में, एक—एक पत्थर में उस परम प्राण को अनुभव किया है। भक्ति उसकी अभिव्यक्ति है। ऐसा व्यवहार इस जगत के साथ, जैसा यह सारा जगत मेरा प्रेमी है। इस अस्तित्व के साथ ऐसा व्यवहार, जैसे इससे एक अंत मैत्री है। तो एक आदमी पौधे के पास पूजा का थाल लिये हुए पूजा कर रहा है, तो हमे पागल पन लगता है। लगेगा, क्योंकि हमें उस तंत्र का कोई पता नहीं है। और हो सकता है उसे भी पता न हो, वह भी सिर्फ परंपरागत किये जा रहा हो। तब वह बिलकुल ना समझी है। एक आदमी नदी को हाथ जोड़ कर प्रणाम कर रहा है, तो बिलकुल पागलपन है। लेकिन अगर परंपरागत ही कर रहा हो तो आप ठीक हैं, और अगर हार्दिक कर रहा हो, तो आप बिलकुल गलत हैं। एक नदी से भी यह संबंध हो सकता है। एक पौधे से भी यह संबंध हो सकता है। एक्पत्थर की मूर्ति से भी यह सबंध हो सकता है। यह संबंध कहीं भी हो सकता है। और एक दफा श्रद्धा का जन्म हो, तो भक्ति अनिवार्य छाया की तरह उसके पीछे चली आती है।
ऋषि ने भक्ति के बाद ध्यान को रखा है। अगर भक्ति हृदय में हो, तो मन को ध्यान में ले जाना इतना सुगम है जिसका कोई हिसाब नहीं। श्रद्धा भीतर हो, तो भक्ति छाया की तरह आ जाती है। श्रद्धा भीतर हो, भक्ति छाया की तरह आती हो, तो ध्यान सुगंध की तरह पीछा करता है। ध्यान में हमे कठिनाई होती है, क्योंकि न श्रद्धा है, न भक्ति है, तो ध्यान हमे सीधा ही करना पड़ता है। सीधा करने में तकलीफ होती है। क्योंकि तब ध्यान में हमें बहुत ताकत लगानी पड़ती है। फिर भी उतने परिणाम नही होते क्योंकि बहुत मौलिक दो आधार नहीं हैं।
जो सारे अस्तित्व के साथ प्रेम से भरा है, और जिसका उठना—बैठना, जिसकी आंख की पलक का हिलना, जिसकी मुद्रा, सब इस जगत के प्रति भक्ति से भरी है, उसे ध्यान में जाने में क्षण— भर की भी देर न लगेगी। उसे ख्याल भर आ जाए कि ध्यान, और ध्यान हो जाए। क्योंकि यहां कोई संघर्ष ही न रहा। कोई तनाव न रहा। तनाव तो वहां है जहां जगत शत्रु है। तनाव तो वहां है जहां अस्तित्व मेरा विरोधी है। तनाव तो वहां है जहां एक लड़ाई चल रही है, जीवन एक.. एक युद्ध है। तनाव नहीं होगा, भक्त ध्यान में ऐसे ही चला जाता है।
इसलिए भक्तों ने तो यहां तक कहा है कि क्या ध्यान, क्या योग! उसका कारण है। भक्तों ने कहा क्या ध्यान, क्या योग, भक्ति काफी है। वह ठीक कहते हैं। वह ठीक इसलिए कहते हैं—इसलिए नहीं कि ध्यान का कोई मतलब नहीं—इसलिए कि ध्यान तो उन्हें सहज हो जाता है। एक मीरा नाचती है और ध्यान में चली जाती है। उसने ध्यान का कोई प्रयोग कभी सीखा नहीं। एक चैतन्य अपने कीर्तन में हैं और ध्यान में चले जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं कि ध्यान!
चैतन्य के साथ बड़ी मजेदार घटना घटी है। चैतन्य ने सुना कि एक बड़ा योगी गांव के पास ठहरा हुआ है और लोग उसके पास जाते हैं, ध्यान सीखते हैं। तो चैतन्य ने कहा, मैं भी जाऊं और ध्यान सीखूं। तो चैतन्य उस योगी के पास ध्यान सीखने गये। हैरान हुए बहुत, क्योंकि जब चैतन्य पहुंचे तो वह योगी चैतन्य के चरणों में सिर रखकर लेट गया। तो चैतन्य ने कहा, यह क्या करते हो? यह क्या करते हो? मैं तो तुमसे ध्यान सीखने आया हूं। मैंने तो सुना कि ध्यान अनेक लोग सीखते हैं, तो मैं भी सीख आऊं। तो उस योगी ने कहा, अगर ध्यान ही सीखना था, तो भक्ति के पहले आना था। ध्यान में तो तुम हो, लेकिन तुम्हें पता भी नहीं। भक्त को पता भी नहीं होता कि वह ध्यान में है। क्योंकि ध्यान उसके लिए 'बाइप्रॉडक्ट' है, पीछे आती है, श्रद्धा और भक्ति का सहज फल होता है।  सबसे आखीर में रखा है योग। जिसे ध्यान सध जाता है, उसके पीछे योग चला आता है। हम सब उल्टे चलते हैं। लोग योग से शुरू करते हैं, फिर ध्यान करते हैं। फिर सोचते हैं कोई तरह से खींचतान कर भक्ति लाओ, फिर आखीर में किसी तरह श्रद्धा बन जाए। जिस व्यक्ति का मन ध्यान में चला जाता है, उसका शरीर योग में चला जाता है। योग शरीर की घटना है, ध्यान मन की।
इसे हम ऐसा समझें। श्रद्धा 'कास्मिक ' है, ब्रह्मभाव है। भक्ति आत्मिक है, व्यक्तिभाव है। ध्यान मानसिक है। योग शारीरिक है। हम शरीर से शुरू करते हैं, फिर मन पर जाते हैं, फिर आत्मा पर, फिर ब्रह्म पर। ऋषि ने कहा है, पहले ब्रह्म के प्रति श्रद्धा, फिर आत्मा में भक्ति, फिर मन में ध्यान, फिर शरीर में योग। ऐसा कोई चलेगा तो हर दूसरा चरण सहज होता है। उल्टा कोई चलेगा, तो हर दूसरा चरण और भी कठिन होता है। योग से जो शुरू करेगा, उसे ध्यान और कठिन होगा। इसलिए आमतौर से ऐसा होता है कि योग से शुरू करनेवाले योग पर ही रुक जाते हैं। आसन वगैरह करके निपट जाते हैं, ध्यान तक नहीं पहुंच पाते हैं। ध्यान से शुरू करेगा, तो भक्ति कठिन होगी। इसलिए ध्यान करनेवाले अक्सर ध्यान पर रुक जाते हैं, भक्ति तक नहीं पहुंच पाते हैं। भक्ति से जो शुरू करेगा, अक्सर भक्ति पर रुक जाएगा। उस परम श्रद्धा तक भी नहीं पहुंच पाएगा। यह आंतरिक केंद्र से यात्रा की शुरुआत है— श्रद्धा केंद्र से; दूसरी परिधि भक्ति, फिर तीसरी परिधि ध्यान, फिर चौथी परिधि योग। ध्यान में गया मन, शरीर अपने—आप योग में प्रवेश कर जाता है।
बहुत लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि जब हम ध्यान करते हैं, तो न—मालूम कैसे—कैसे आसन अपने—आप शुरू हो जाते हैं। वे हो जाएगे जब मन, भीतर ध्यान की स्थिति बदलेगी, तो शरीर को तत्काल स्थिति बदलनी पड़ेगी और मन के अनुकूल अपने को सभांलना पड़ेगा।
यह चार सूत्र बहु मूल्य हैं। इनकी शृखंला सर्वाधिक बहुमूल्य है। श्रद्धा से प्रारंभ करें।
(Picture courtesy google)

Monday 28 August 2017

राधा का दर्द


ये पढने के बाद एक "आह" और एक "वाह" जरुर निकलेगी...

कृष्ण और राधा स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दूसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण-
प्रसन्नचित सी राधा...

कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्काई

इससे पहले कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल उठी-

"कैसे हो द्वारकाधीश ??"

जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया

फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया

और बोले राधा से ...

"मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो

सच कहूँ राधा
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बूँदे निकल आती थी..."

बोली राधा -
"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते

इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे

प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?

कुछ कडवे सच , प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?

कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?

एक उँँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर भरोसा कर लिया
और
दसों उँगलियों पर चलने वाली
बांसुरी को भूल गए ?

कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो उँँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही उँँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी ?
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ ?

कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता

युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं

कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ?

सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालाक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
अपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी ?

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे

आज भी धरती पर जाकर देखो

अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को
ढूंढते रह जाओगे
हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे

आज भी मै मानती हूँ

लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं, i.
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं

गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है,
पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" करते है".

🌷🌷 जय श्री कृष्ण।। राधे राधे 🌷🌷

Saturday 26 August 2017

Our Journey Together is so Short!

A young lady sat in a bus. At the next stop a loud and grumpy old lady came and sat by her. She squeezed into the seat and bumped her with her numerous bags. 

The person sitting on the other side of the young lady got upset, asked her why she did not speak up and say something.

The young lady responded with a smile: 

"It is not necessary to be rude or argue over something so insignificant, the journey together is so short. I get off at the next stop."
 
This response deserves to be written in golden letters:

*"It is not necessary to argue over something so insignificant, our journey together is so short"*

If each one of us realized that our time here is so short; that to darken it with quarrels, futile arguments, not forgiving others, discontentment and a fault finding attitude would be a waste of time and energy.

Did someone break your heart? *Be calm, the journey is so short.*

Did someone betray, bully, cheat or humiliate you? *Be calm, forgive, the journey is so short.*

Whatever troubles anyone brings us, let us remember that *our journey together is so short.*

No one knows the duration of this journey. No one knows when their stop will come. *Our journey together is so short.*

Let us cherish friends and family. Let us be respectful, kind and forgiving to each other. Let us be filled with gratitude and gladness. 
Let your soul Say out aloud
"If I have ever hurt you, I ask for your forgiveness. If you have ever hurt me, you already have my forgiveness." 

After all, *Our Journey Together is so Short!*

Sweet torment ~◆~

Sunday 20 August 2017

Divine Pearls from Sri Sai Satcharita

Why fear when I am here?
I am formless and everywhere
I am in everything and beyond. I fill all space.
All that you see taken together is Myself.
I do not shake or move.
If one devotes their entire time to me and rests in me, need fear nothing for body and soul.
If one sees me and me alone and listens to my Leelas and is devoted to me alone, they will reach God.
My business is to give blessings.
I get angry with none. Will a mother get angry with her children? Will the ocean send back the waters to the several rivers?
I will take you to the end.
Surrender completely to God.
If you make me the sole object of your thoughts and aims, you will gain the supreme goal.
Trust in the Guru fully. That is the only sadhana.
I am the slave of my devotee.
Stay by me and keep quiet. I will do the rest.
What is our duty? To behave properly. That is enough.
My eye is ever on those who love me.
Whatever you do, wherever you may be, always bear this in mind: I am always aware of everything you do.
I will not allow my devotees to come to harm.
If a devotee is about to fall, I stretch out my hands to support him or her.
I think of my people day and night. I say their names over and over.
My treasury is open but no one brings carts to take from it. I say, “Dig!” but no one bothers.
My people do not come to me of their own accord; it is I who seek and bring them to me.
All that is seen is my form: ant, fly, prince, and pauper
However distant my people may be, I draw them to me just as we pull a bird to us with a string tied to its foot.
I love devotion.
This body is just my house. My guru has long ago taken me away from it.
Those who think that Baba is only in Shirdi have totally failed to know me.
Without my grace, not even a leaf can move.
I look on all with an equal eye.
I cannot do anything without God’s permission.
God has agents everywhere and their powers are vast.
I have to take care of my children day and night and give an account to God of every paisa.
The wise are cheerful and content with their lot in life.
If you are wealthy, be humble. Plants bend when they bear fruit.
Spend money in charity; be generous  but not extravagant.
Get on with your worldly activities cheerfully, but do not forget God.
Do not kick against the pricks of life.
Whatever creature comes to you, human or otherwise, treat it with consideration.
Do not be obsessed by the importance of wealth.
See the divine in the human being.
Do not bark at people and don’t be aggressive, but put up with others’ complaints.
There is a wall of separation between oneself and others and between you and me. Destroy this wall!
Give food to the hungry, water to the thirsty, and clothes to the naked. Then God will be pleased.
Saburi (patience) ferries you across to the distant goal.
The four sadhanas and the six Sastras are not necessary. Just has complete trust in your guru: it is enough.
Meditate on me either with form or without form, that is pure bliss.
God is not so far away. He is not in the heavens above, nor in hell below. He is always near you.
If anyone gets angry with another, they wound me to the quick.
If you cannot endure abuse from another, just say a simple word or two, or else leave.
What do we lose by another’s good fortune? Let us celebrate with them, or strive to emulate them.
That should be our desire and determination.
I stay by the side of whoever repeats my name.
If formless meditation is difficult, then think of my form just as you see it here. With such meditation, the difference between subject and object is lost and the mind dissolves in unity.
If anyone offends you do not return tit for tat.
I am the slave of those who hunger and thirst after me and treat everything else as unimportant.
Whoever makes me the sole object of their love, merges in me like a river in the ocean.
Look to me and I will look to you.
What God gives is never exhausted, what man gives never lasts.
Be contented and cheerful with what comes.
My devotees see everything as their Guru.
Poverty is the highest of riches and a thousand times superior to a king’s wealth.
Put full faith in God’s providence.
Whoever withdraws their heart from wife, child, and parents and loves me, is my real lover.
Distinguish right from wrong and be honest, upright and virtuous.
Do not be obsessed by egotism, imagining that you are the cause of action: everything is due to God.
If we see all actions as God’s doing, we will be unattached and free from karmic bondage.
Other people’s acts will affect just them. It is only your own deeds that will affect you.
Do not be idle: work, utter God’s name and read the scriptures.
If you avoid rivalry and dispute, God will protect you.
People abuse their own friends and family, but it is only after performing many meritorious acts that one gets a human birth. Why then come to Shirdi and slander people?
Speak the truth and truth alone.
No one wants to take from me what I give abundantly.
Do not fight with anyone, nor retaliate, nor slander anyone.
Harsh words cannot pierce your body. If anybody speaks ill of you, just continue on unperturbed.
Choose friends who will stick to you till the end, through thick and thin.
Meditate on what you read and think of God.
I give my devotees whatever they ask, until they ask for what I want to give.
You should not stay for even one second at a place where people are speaking disrespectfully of a saint.
If you do not want to part with what you have, do not lie and claim that you have nothing, but decline politely saying that circumstances or your own desires prevent you.
Let us be humble.
Satsang that is associating with the good is good. Dussaya, or associating with evil-minded people, is evil and must be avoided.
What you sow, you reap. What you give, you get.
Recognize the existence of the Moral Law as governing results. Then unswervingly follow this Law.
All gods are one. There is no difference between a Hindu and a Muslim. Mosque and temple are the same.
Fulfill any promises you have made.
Death and life are the manifestations of God’s activity. You cannot separate the two. God permeates all.
Mukti is impossible for those addicted to lust.
Gain and loss, birth and death are in the hands of God.
When you see with your inner eye. Then you realize that you are God and not different from Him.
Avoid unnecessary disputes
The giver gives, but really he is sowing the seed for later: the gift of a rich harvest.
Wealth is really a means to work out dharma. If one uses it merely for personal enjoyment, it is vainly spent.
To God be the praise. I am only the slave of God.
God will show His love. He is kind to all.
Whenever you undertake to do something, do it thoroughly or not at all.
One’s sin will not cease till one falls at the feet of Sadguru
Be ashamed of your hatred. Give up hatred and be quiet.
The Moral Law is inexorable, so follow it, observe it, and you will reach your goal: God is the perfection of the Moral Law.
I am your servants’ servant.
Always think of God and you will see what He does.
Have faith and patience. Then I will be always with you wherever you are.


साईं वे साढी फरियाद तेरे ताहि【साईं भजन】


साईं वे साढी फरियाद तेरे ताहि

कोई अली आखे कोई वली आखे, कोई कहे दाता सचे मालिका नु ।
मेनू समज न आवे की नाम देवा, एस गोल चकी दिया चालका नु ॥

रूह दा असल मालिक ओही मानिये जी, जिदा नाम लईए ता सरुर होवे ।
अखा खुलिया नू महबूब दिस्से, अखा बंद होवण ता हुजुर होवे ॥

कोई सौन वेले कोई नहान वेले, कोई गौण वेले तैनू याद करदा ।
एक नजर तू मेहर दी मार साईं, सरताज वी खड़ा फरयाद करदा ॥
टुटेजा संधू वी खड़ा फ़रेयाद करदा ॥

साईं वे साढी फरियाद तेरे ताहि, साईं वे बह्हो फ़ढ़ बेड़ा बन्ने लाई ।
साईं वे मेरेआं  गुनाहा नु लुकाई , साईं वे हाजरा हजूर वे तू आई ॥

साईं वे फेरा मस्कीना वाल पाई , साईं वे बोल काक सारा दे पुगई ।
साईं वे हक विच फैसले सुनाई , साईं वे हौली - हौली खामिया घटाई ।
साईं वे मेनू मेरे अन्द्रो मुकाई, साईं जे डीगिये ता फर के उठाई ।
साईं वे देखि ना भरोसे आजमाई, साईं वे औखे -सौखे रहा चो काढायीं ।
ओ साईं, कला नु वी होर चमकाई, वे सूरा  नु बिठा दे थो - थाई ।

साईं वे ताल विच तुरना सिखाई , साईं वे साज रूस गए ता मनाई ।
साईं वे ऐहना नाल आवाज़ वे रालायी , साईं वे अखरा दा मेल तू  कराइ ।
साईं वे कन्नी किसे गीत दी फडाई, साईं वे शब्दा दा साथ वी निभाई ।
साईं वे नगमे नू फड़ के जगाई , साईं वे शायरी च असर वखायीं ।
साईं वे ज़ज्बे दी वाले नु वडाई , साईं वे गुट-गुट सब नु पेआयीं ।
साईं वे इश्कुए दा नशा वी चाडायीं, साईं वे सैर तू ख्यालां नू कराई ।
साईं वे  तारेआं दे देश ली के जावीं , साईं वे फुफिया दे वांगरा नचाई ।
साईं वे असी सज बैठे चाईं-चाईं , साईं वे थोड़ी बौती अदा वी सिखाई ।
साईं वे मेरे  नाल- नाल  तू वे गायीं ।
साईं वे साईं  लाज सरताज दी बचाई, साईं वे भुलेये नू  ऊँगली फराई ।
साईं वे अग्गे हो के राह रोषनयी ,साईं वे नेहरा विच पल्ले ना छुडायीं ।
साईं वे जिंदगी दे भोज नु चुकाई , साईं वे फिखारा नु हवा च उढाई ।
साईं वे सारे लगे दाग वी धोअई , साईं वे सिले-सिले नैना नु सुखाई ।
साईं वे दिला दे गुलाब महकाई, साईं वे बस पट्टी  प्यार दी पढ़ाईं ।
साईं वे पाक साफ़ रहा नु मलाई , साईं वे बच्चेआ दे वंगु समझाईं ।
साईं वे माड़े कामो घूर के हटाई , साईं वे खोटेया नु खरे च मिलाई ।
साईं वे लोहे नाल पारस कसाई, साईं वे मेहेंता दे मूल वे पवाई ।

ओ साईं वे मारेया दी मंदी न विखाई, साईं वे देखि हून देर न लगाई ।
साईं वे दारां ते खरे हा खैर पाई, साईं वे महरा वाले मीह वि वरसाई ।
साईं वे अकला दे घड़े नु पराई , साईं वे घुम्बद गरूर दे गिराई ।
साईं वे आग वंगु  हौसले  पखाई , साईं वे अम्बरा तोह सोच  मंगवाई ।
साईं वे अपे वाज़ मार के बुलाई , साईं वे हुन सानु  कोल वे बिठाई ।
साईं वे अपने ही रंग च रंगाई , साईं वे मैं हर वेहले करां साईं साईं ।

साईं वे तोते वांगु बोल वी रटाई , साईं वे आत्मा दा दीवा वी जगाई ।
साईं वे अनहद नाद तू वजाई , साईं वे रूहानी कोई तार छेड़ जाईं ।
साईं वे सच्ची(honest) सरताज वी बनाई ।
साईं वे सच्ची टुटेजा वी बनाई ।
साईं साईं साईं ॥

Thursday 10 August 2017

एक कहानी : ओशो की ज़ुबानी

रामकृष्ण बहुत दिन तक साकार उपासना में थे; सगुण साकार की उपासना में लीन थे। काली के भक्त थे। मां की उन्होंने पूजा-अर्चना की थी। और मां की साकार प्रतिमा को भीतर अनुभव कर लिया था। मनुष्य के मन की इतनी सामर्थ्य है कि वह जिस पर भी अपने ध्यान को पूरा लगा दे, उसकी जीवंत प्रतिमा भीतर उत्पन्न हो जाती है। लेकिन फिर भी रामकृष्ण को तृप्ति नहीं थी। क्योंकि मन से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। मन के ऊपर ही संतृप्ति का लोक है। तो बहुत बेचैन थे। अब बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे। जहां तक साकार प्रतिमा ले जा सकती थी, पहुंच गए थे। लेकिन कोई तृप्ति न थी, तो तलाश करते थे कि कोई मिल जाए, जो निराकार में धक्का दे दे।

तो एक संन्यासी गुजरता था। गुजरता था कहना शायद ठीक नहीं है, रामकृष्ण की पुकार के कारण निकला वहां से। इस जगत में जब आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेते हैं, जो आपको किसी विधि के जीवन में प्रवेश करा दे, तो आप यह मत सोचना कि आपने उसे खोजा। आप न खोज पाएंगे। वही आपको खोजता है।

तोतापुरी निकले। तोतापुरी दो दिन से एहसास कर रहे थे कि किसी को मेरी बहुत जरूरत है। दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास से निकलते थे, रुक गए। किसी से पूछा कि मंदिर के भीतर कौन है? तो उन्होंने कहा कि रामकृष्ण मंदिर के भीतर साधना करते हैं। तोतापुरी भीतर गए, देखा कि रामकृष्ण को उनकी जरूरत है; कोई निराकार की यात्रा पर धक्का दे दे।

अदृश्य का जगत इतना ही बड़ा है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह बहुत कम है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह बहुत बड़ा है। न तो हम आकस्मिक किसी से मिलते हैं, न मिल सकते हैं। आकस्मिक हम किसी को सुन भी नहीं सकते। आकस्मिक किसी का शब्द भी हमारे कान में नहीं पड़ सकता। बहुत कार्य-कारणों का जाल है।

तोतापुरी ने जाकर रामकृष्ण को हिलाया। आंख खोली रामकृष्ण ने। रामकृष्ण को लगा, आ गया वह आदमी। उन्होंने नमस्कार किया और कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। दो दिन से चिल्ला रहा हूं कि भेजो किसी को जो मुझे आकार से मुक्त कर दे। आ गए आप! तोतापुरी ने कहा, आ गया मैं। लेकिन कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि तुमने इतनी मेहनत से जो साकार निर्मित किया है, उसे तोड़ना भी पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, मेरी काली को बचने दो। मेरी प्रतिमा को बचने दो, और मुझे निराकार में जाने दो। तोतापुरी ने कहा, तो मैं लौट जाऊं। यह दोनों बात एक साथ न हो सकेगी। तुम्हें इस प्रतिमा को भीतर से तोड़ना पड़ेगा, जैसे तुमने बनाया। रामकृष्ण ने कहा, मैं तोड़ ही नहीं सकता। और तोडूंगा कैसे! भीतर कोई औजार भी तो नहीं है।

तोतापुरी ने कहा, आंख बंद करो और तोड़ने की कोशिश करो। रामकृष्ण आंख बंद करते। आनंदमग्न हो जाते। नाचने लगते। तोतापुरी रोकते और कहते, मैंने इसलिए आंख बंद करने को नहीं कहा। रामकृष्ण कहते, लेकिन जब प्रतिमा दिखाई पड़ती है, तोड़ने की बात कहां, मैं बचता ही नहीं। आनंदमग्न हो जाता हूं। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस आनंद में तृप्त हो जाओ। तृप्त भी नहीं हो पाता, किसी और महाआनंद की तलाश है। तो तोतापुरी ने कहा, फिर इस प्रतिमा को तोड़ो। रामकृष्ण कहने लगे, कैसे तोडूं? न कोई हथौड़ी, न कोई छेनी, कुछ भी तो नहीं है! तोतापुरी ने जो कहा, वह मैं आपसे कहता हूं।

उसने कहा, बनाई कैसे थी? छेनी थी भीतर? किस छेनी से बनाई थी प्रतिमा? उसी छेनी से तोड़ दो। रामकृष्ण ने कहा कि किस छेनी से बनाई थी! मन के ही भाव से बनाई थी। तो तोतापुरी ने कहा, एक काम करो। आंख बंद करो, और मैं एक कांच का टुकड़ा उठाकर लाता हूं बाहर से, और मैं तुम्हारे माथे पर कांच के टुकड़े से काटूंगा, और जब तुम्हें भीतर मालूम पड़े कि लहूलुहान तुम्हारा माथा हो गया तब हिम्मत करके, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना प्रतिमा के। रामकृष्ण ने कहा, तलवार!

तोतापुरी ने कहा, जब प्रतिमा तक तुम अपने मन से बना सके, तो तलवार न बना सकोगे? बना लेना। रामकृष्ण बड़े रोते हुए, क्षमा मांगते हुए कि बड़ी मुश्किल की बात है, भीतर गए। फिर तोतापुरी ने माथे पर कांच से काट दिया। काटते वक्त उन्होंने हिम्मत की, तलवार उठाई, प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिर गई। रामकृष्ण छः दिन के लिए गहन समाधि में खो गए। छः दिन के बाद जब वापस लौटे, तो उन्होंने कहा, अंतिम बाधा गिर गई–दि लास्ट बैरियर हैज फालेन अवे। आखिरी! वह प्रतिमा भी आखिरी बाधा बन गई थी।

जो हम निर्मित करते हैं, उसे मिटाना भी पड़ता है फिर। हमने राग की प्रतिमाएं निर्मित की हैं, तो हमें विराग की तलवारें उठानी पड़ेंगी। नहीं तो कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। अगर राग निर्माण न किया हो, तो विराग की तलवार उठाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिसने राग निर्माण नहीं किया है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने कहां जाता है! पूछने कहां जाता है! वह जाता नहीं। और जिसने राग निर्माण किया है, वह सुनने-पूछने जाता है। वह उससे कह रहे हैं कि कुछ न करना। कुछ करने की जरूरत नहीं है। अभ्यास व्यर्थ है।

तो वह जो रागी है, अपने अभ्यास को तो जारी रखता है राग के। बड़ा मजा यह है हमारे मन का। अगर वह यह भी मान ले कि अभ्यास व्यर्थ है, तो राग का अभ्यास भी बंद कर दे। वह तो बंद नहीं करता। उसको जारी रखता है। सिर्फ वैराग्य का अभ्यास बंद कर देता है। बंद कर देता है, कहना ठीक नहीं; शुरू नहीं करता। बंद कहां! उसने शुरू ही नहीं किया है।