Monday 27 November 2017

मंगलवार व्रत कथा और आरती श्री हनुमानजी


मंगलवार व्रत कथा

व्यास जी ने कहा- एक बार नैमिषारण्य नामक तीर्थ में अस्सी हजार मुनि एकत्रित हुए और उन्होंने वहां उपस्थित श्री सूत जी से पूछा - हे महामुने! हमने आपसे पुराणों की अति कल्याणकारी कथाएं सुनी हैं जिसमे से किसी कथा से धन मिलता है और किसी से प्रसन्नता, अब कृपा करके हमें एक ऐसी व्रत और कथा बतायें जिसको विधि पूर्वक करने से सन्तान की प्राप्ति भी हो तथा मनुष्यों को रोग, शोक, अग्नि, सर्व दुःख आदि का भय भी दूर हो क्योंकि कलियुग में सभी जीवों की आयु बहुत कम है। फिर इस पर उन्हें रोग-चिन्ता के कष्ट लगे रहेंगे तो फिर वह श्री हरि के चरणों में अपना ध्यान कैसे लगा सकेंगे।

सभी पुराणों के ज्ञाता श्री सूत जी बोले- हे ज्ञानी मुनियों! आपने लोक कल्याण के लिए बहुत ही उत्तम बात कही है। द्वापर युग में युधिष्ठिर ने भी भगवान श्रीकृष्ण से यही प्रश्न किया था। भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का वह संवाद तुम्हारे सामने कहता हूं, ध्यान देकर सुनो।

एक समय पाण्डवों की सभा थी और श्रीकृष्ण भगवान भी सभा में बैठे हुए थे। धर्मराज युधिष्ठिर भी आने वाले कलयुग के लिए चिंतित थे। युधिष्ठिर को चिन्तित देखकर सर्वव्यापी और सर्वज्ञानी श्री कृष्ण भगवान बोले- ‘हे युधिष्ठिर इस प्रकार चिंता में क्यों हो?’ तब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से बोले - हे प्रभु! हे यशोदा नंदन! मैं आपने वाले कलयुग के लिए अति चिंतित हूँ क्योंकि लोगो में हरि भक्ति कम हो रही है और आने वाले कलयुग में तो भक्ति हीन मनुष्य माया के अधीन होकर बहुत प्रकार के रोग चिंता से घिर जायेगा, नि:सन्तान रहेगा, और कष्ट भोगेगा, प्रभु! आप कुछ ऐसा बताये जिसके करने से मनुष्य को रोग-चिन्ता का भय समाप्त हो और उसको पुत्र की प्राप्ति हो।

श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे राजन्‌! मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, उसे आप ध्यानपूर्वक सुनिए क्योंकि यह कथा ही आने वाले समय में समस्त दुखो का नाश करने वाली और निसंतान दम्पति लोगो को सन्तान प्राप्ति कराने वाली होगी-

कुण्डलपुर नामक एक नगर था, उसमें नन्दा नामक एक ब्राह्‌मण रहता था। ब्राह्मण के पास भगवान की दया से सब कुछ था परन्तु उसकी कोई संतान नहीं थी इस वजह से वह बहुत दुःखी रहता था। ब्राह्मण की पत्नी कानाम सुनंदा था वह वह पतिव्रता थी और हमेशा अपने पति की मन से सेवा किया करती थी। वह भक्तिपूर्वक श्री हनुमान भगवान की पूजा आराधना किया करती थी। ब्राह्मण पत्नी हर मंगलवार को विधिपूर्वक मंगवार का पूजा पाठ करती और व्रत करके अन्त में भोजन बना कर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद स्वयं भोजन करती थी। ऐसे ही समय बीतता रहा। एक दिन मंगलवार के दिन ब्राह्मण पत्नी घर के काम में अधिक व्यस्त होने के कारण हनुमान जी को भोग न लगा सकी, तो इस पर उसे बहुत दुःख हुआ। ब्राह्मण पत्नी ने उस दिन सुबह से कुछ भी नहीं खाया और अपने मन में प्रण किया कि अब आने वाले अगले मंगवार तक अन्न जल भोजन नहीं ग्रहण करेगी और भगवान हनुमान को भोग लगाकर ही अन्न-जल ग्रहण करेगी।

ब्राह्‌मणी सुनन्दा पूर्व की तरह रोज भोजन बनाती, श्रद्धापूर्वक अपने पति को खिलाती, परन्तु स्वयं भोजन नहीं करती और मन ही मन श्री हनुमान जी की पूजा आराधना करती थी। इसी प्रकार छः दिन गुजर गए, और ब्राह्‌मणी सुनन्दा अपने निश्चय के अनुसार भूखी प्यासी निराहार रही, फिर अगले मंगलवार को ब्राह्‌मणी सुनन्दा प्रातः काल ही बेहोश होकर गिर पड़ी।

ब्राह्‌मणी सुनन्दा की इस असीम भक्ति भाव से हनुमान भगवान बहुत प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले - सुनन्दा! मैं तुम्हारी भक्ति से अति प्रसन्न हूं, उठ जा और अपना इक्षित वर मांग।

सुनन्दा अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी को देखकर हनुमान जी के चरणों में गिर पड़ी और उसके आँखों से अश्रु की धरा बहने लगी और वह बोली- 'हे प्रभु! मेरी कोई सन्तान नहीं है, कृपा करके मुझे सन्तान प्राप्ति का आशीर्वाद दें, आपकी अति कृपा होगी।'

श्री हनुमान जी बोले -'जैसा तूने कहा वैसा ही होगा। तुम्हे एक कन्या पैदा होगी उसके अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे।' ऐसा कह कर श्री हनुमान भगवान जी अन्तर्ध्यान हो गये। ब्राह्‌मणी सुनन्दा बहुत खुश हुई और जब शाम के समय ब्राह्मण देव घर आये तो उन्हें यह समाचार विस्तारपुर्वक सुनाया। ब्राह्‌मण देव कन्या का वरदान सुनकर कुछ दुःखी हुए, परन्तु सोना मिलने की बात सुनी तो बहुत प्रसन्न हुए। सोचने लागे कि ऐसी कन्या के साथ उनकी निर्धनता भी समाप्त हो जाएगी।

जैसा श्री हनुमान जी ने वरदान दिया था जल्द ही ब्राह्‌मणी गर्भवती हुई और भगवान हनुमान ज़ी की कृपा से दसवें महीने में ही ब्राह्मणी के गर्भ से बहुत ही सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। यह बच्ची, अपने पिता के घर में ठीक उसी तरह से बढ़ने लगी, जिस प्रकार शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। दसवें दिन ब्राह्‌मण ने उस बालिका का नामकरण संस्कार कराया, उसके कुल पुरोहित ने उस कन्या का नाम रत्नावली रखा, क्योंकि यह कन्या सोना प्रदान किया करती थी, इस कन्या ने पूर्व-जन्म में बड़े ही विधान से मंगलदेव का व्रत किया था।

हनुमान जी का जैसा वरदान था रत्नावली का अष्टांग बहुत सा सोना देता था, जल्द ही उस सोने के कारण ब्राह्‌मण बहुत ही धनी हो गया। और अब ब्राह्‌मणी भी अपने पर अभिमान करने लगी थी। समय बीतता गया, अब ब्राह्मण कन्या रत्नावली भी बड़ी हो गयी। अब वह दस वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन जब नन्दा ब्राह्‌मण प्रसन्न चित्त था, तब ब्राह्मणी ने अपने पति से कहा- 'हमारी पुत्री रत्नावली विवाह के योग्य हो गयी है, अतः हमें अब कोई सुन्दर तथा योग्य वर देखकर इसका विवाह कर देना चाहिए।' यह सुन ब्राह्‌मण बोला- 'अभी तो हमारी कन्या बहुत छोटी है' । तब ब्राह्‌मणी बोली- 'शास्त्रों की आज्ञा है कि कन्या आठवें वर्ष में गौरी, नौ वर्ष में राहिणी, दसवें वर्ष में कन्या इसके पश्चात रजस्वला हो जाती है। गौरी के दान से पाताल लोक की प्राप्ति होती है, राहिणी के दान से बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है, कन्या के दान से इन्द्रलोक में सुखों की प्राप्ति होती है। अगर हे पतिदेव! रजस्वला का दान किया जाता है तो घोर नर्क की प्राप्ति होती है।'

इस पर ब्राह्‌मण बोला -'अभी तो रत्नावली मात्र दस ही वर्ष की है और मैंने तो सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराये हैं अभी इतनी जल्दी ठीक नहीं।' तब ब्राह्‌मणी सुनन्दा बोली- 'आपको आपको तो लोभ अधिक हो गया लगता है। शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता और बड़ा भाई रजस्वला कन्या को देखते हैं तो वह अवश्य ही नरकगामी होते हैं।'

तब ब्राह्‌मण बोला- 'ठीक है, कल मैं अवश्य ही योग्य वर की तलाश में अपना दूत भेजूंगा।' दूसरे दिन ब्राह्‌मण ने अपने दूत को बुलाया और आज्ञा दी कि मेरी कन्या योग्य सुन्दर और समर्थ वर उसके लिए तलाश करो। जैसा ब्राह्मण ने कहा था दूत ने सुना और आज्ञा लेकर निकल पड़ा। नगर से नगर भ्रमण करते समय दूत पम्पि नगर पहुंचा, पम्पई नगर में उसने एक सुन्दर लड़के को देखा। दूत ने आस पास के लोगो से उस लड़के का विवरण पता किया तो उसे पता चला की वह सुन्दर लड़का उसी नगर का निवासी और ब्राह्‌मण परिवार का बहुत गुणवान पुत्र था, इसका नाम सोमेश्वर था। दूत ने लड़के के बारे में जानकारी जुटाकर अपने नगर जाकर अपने स्वामी ब्राह्मण को पूर्ण विवरण दिया। ब्राह्‌मण नन्दा उस नगर गया और उस लड़के सोमेश्वर के माता पिता से मिला और उनसे मिलने पर संतुष्ट हुए और लड़के और उसके परिवार को अपनी कन्या हेतु सुयोग्य जान सोमेश्वर से अपने कन्या के विवाह की बात तय कर ली और फिर शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक कन्या दान करके ब्राह्‌मण-ब्राह्‌मणी संतुष्ट हुए।

ब्राह्मण कन्या रत्नावली के विवाह के पश्चात भी ब्राह्मण खुश नहीं था क्योंकि उसे चिंता हो रही थी कि अब तो जो रत्नावली के कारण प्रतिदिन सोना मिलता था वह अब नहीं मिलेगा और विवाह में भी काफी धन खर्च हो गया था और जो धन अब शेष बचा है वो भी धीरे धीरे कर के समाप्त हो जायेगा। इसलिए धन के लोभ की वजह से उसकी प्रसन्नता चली गयी थी और वो सोच रहा था की उसने रत्नावली का विवाह करके शायद भूल कर दी है। इसलिए अब वो सोचने लगा था की कुछ ऐसा उपाय किया जाये जिससे रत्नावली घर में ही बनी रहे और अपने ससुराल न जाये। लोभ रूपी राक्षस ब्राह्‌मण के मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। रात भर इसी कारण ब्राह्मण को नीद नहीं आई और पूरी रात वो चिंता करते बेचैनी में ही कट गई और उसने बहुत ही क्रूर निर्णय लिया की जब उसकी पुत्री को लेकर सोमेश्वर अपने घर के लिए जाएगा तो वह मार्ग में छिप कर सोमेश्वर का वध कर देगा और फिर अपनी कन्या को अपने घर ले आवेगा, जिससे उसे पहले की तरह सोना मिलता रहेगा और समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी धूमिल नहीं होगी।

जब सुबह हुई तो कन्या को विदा करने का समय भी आ गया तो ब्राह्मण-ब्राह्मणी ने अपनी कन्या और अपने जमाई को बहुत सारा धन देकर विदा किया। सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नावली को लेकर ससुराल से अपने नगर की ओर चल दिया।

ब्राह्‌मण नन्दा लोभ के वशीभूत होकर अपनी मति खो चूका। और जैसा उसने पहले से ही निश्चय कर रखा था उसने अपने दूत को अपने जमाई का वध करने के लिए भेज दिया। ब्राह्‌मण के दूत ने ब्राह्मण के कहे अनुसार रस्ते में छिपकर ब्राह्मण के जमाई सोमेश्वर का वध कर दिया। जब उसे उसके जमाई की मृत्यु का समाचार मिला तो वह ब्राह्मणी के साथ उस मार्ग में पहुंचा जहा सोमेश्वर का शव रखा हुआ था और दुःख होने का ढोंग करता हुआ अपनी पुत्री रत्नावली से बोला-'हे पुत्री! मार्ग में लुटेरों ने तेरे पति का वध कर दिया है। भगवान की इच्छा के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता है। अब तू घर चल, वहां पर ही रहकर शेष जीवन व्यतीत करना। जो भाग्य में लिखा है वही होगा।'

रत्नावली को अपने पिता के पाप कर्म का पता नहीं था उसे भी यही लगा की लुटेरो ने उसके पति का वध कर दिया है। रत्नावली अपने पति सोमेश्वर की मृत्यु से बहुत दुःखी हुई और करूँ कृन्दन व रुदन करते हुए अपने पिता से बोली- 'हे पिताजी! इस संसार में जिस स्त्री का पति नहीं है उसका जीना व्यर्थ है, मैं अपने पति के मृत देह के साथ ही सती होकर अपने इस जन्म को, माता-पिता के नाम को तथा सास-ससुर के यश को सार्थक करूंगी।'

ब्राह्‌मण नन्दा अपनी पुत्री रत्नावली के इन वचनों को सुनकर बहुत दुःखी हुआ। और सोचने लगा कि- मैंने व्यर्थ ही जमाई वध का पाप अपने सिर लिया। रत्नावली तो उसके पीछे अपने प्राण तक देने को तैयार है। मेरा तो जन्म और मरण दोनों ही व्यर्थ हो गया क्योंकि अब तो न धन ही रहेगा और इस पाप कर्म के कारण न ही स्वर्ग को प्राप्त होऊंगा। यह सोचकर वह बहुत खिन्न हुआ।

सोमेश्वर की चिता बनाई गई। रत्नावली सती होने के लिए अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई। जैसे ही सोमेश्वर की चिता को अग्नि लगाई गई वैसे ही प्रसन्न हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले- 'हे रत्नावली! मैं तेरी पति भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ इसलिए जो चाहे वर मांग।' रत्नावली बोली – ‘हे देव, अगर आप सच में मुझ पर प्रसन्न है तो मेरे पति को जीवन दे’। तब मंगल देव बोले- 'रत्नावली! तेरा पति अजर-अमर है। यह महाविद्वान भी होगा। और इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो वर मांग।'

तब रत्नावली बोली- 'हे देव! आपने मेरे पति को जीवित कर मुझे सब कुछ दे दिया है इसलिए मुझे और कुछ नहीं चाहिए पर अगर आप और भी कुछ देना चाहते है तो मुझे यह वरदान दीजिये कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातः काल लाल पुष्प, लाल चन्दन से पूजा करके आपका स्मरण करे उसको रोग-व्याधि न हो, स्वजनों का कभी वियोग न हो, सर्प, अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे, जो स्त्री मंगलवार का व्रत करे, वह कभी विधवा न हो।''

मंगलदेव बोले -'ऐसा ही हो' और यह कह कर वह अन्तर्ध्यान हो गये।

सोमेश्वर मंगलदेव की कृपा से जीवित हो उठा। रत्नावली अपने पति को पुनः प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई और मंगल देव का व्रत प्रत्येक मंगलवार को करके मंगलदेव की कृपा से इस लोक में सुख-ऐश्वर्य को भोगते हुए अन्त में अपने पति के साथ स्वर्ग लोक को गई।

॥इति श्री मंगलवार व्रत कथा॥

आरती श्री हनुमानजी 


आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुना कला की
जाके बल से गिरिवर कांपे। रोग दोष जा निकट न झांके
अंजनि पुत्र महा बलदाई। सन्तन के प्रभु सद सहाई॥
दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुध लाए॥
लंका सो कोट समुद्र-सी खाई। जात पवनसु बार न लाई
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के का सवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि संजीवन प्रा उबारे॥
पैठि पाताल तोरि जम-कारे। अहिरावण क भुजा उखारे
बाएं भुजा असुरदल मारे। दाहिने भुजा संतज तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। जय जय जय हनुमा उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजन माई॥
जो हनुमानजी की आरती गावे। बसि बैकुण् परम पद पावे